Thursday, 5 June 2014

Introduction and incorporation of intellectual soul

शांति पाठः

ऊँ सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहे।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।

यानी परमात्मा हम दोनों (गुरु और शिष्य) की एक साथ रक्षा करे। एक साथ हमें उपभोग करें। हम साथ ही पराक्रम करें। हमारा अध्ययन तेजस्वी हो। द्वेष न करें। यह श्लोक अगर आप भोजन करने के पहले करते हैं तो आपको भोजन करने का पुण्य मिलेगा।

दरअसल कठोपनिषद में विषय की अधिकता के कारण इसे दो अध्यायों में बांटा गया है। पहला अध्याय नचिकेता और यम की बातचीत पर आधारित हैं। जहां उन दोनों के संवादों में बौद्धिकता का परिचय मिलता है।

तो वहीं दूसरा अध्याय मनुष्य की इंद्रियों, आत्मा और ग्रह-नक्षत्र के बारे में हैं इन्हीं दोनों अध्यायों में कुछ ऐसी बाते हैं जो हर मनुष्य को जान लेना बहुत जरूरी हैं।

प्रथम अध्याय

    जिसके घर में ब्रह्मण भूखा रहता है। उसकी सभी इच्छाएं, प्रतीक्षाएं, सत्संग से प्राप्त फल सत्य वाणी बोलने का फल, यज्ञ आदि सभी कुछ पुण्यफल नष्ट हो जाता है।

    मनुष्य को चाहे कितना ही धन क्यों न मिले, वह की संतुष्ट नहीं हो सकता। अतः असीमित धन भी व्यर्थ है।

    स्वयं को धरी और पंडित मानने वाले अंधकार में डूबे हुए एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का मार्गदर्शन कराया जाना ठीक उसी प्रकार है, जैसे एक अंधे द्वारा दूसरे अंधे का मार्गदर्श। इस प्रकार दोनों ही अपने मार्ग से भटक सकते हैं।

    धन के लोभ में डूबे व्यक्ति को प्रमाद के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति का मार्ग अच्छा नहीं लगता है। इस लोक के अतिरिक्त दूसरा लोक नहीं है। ऐसा मानने वाले मूर्ख लोग बार-बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

    जिस आत्मा के विषय में बहुत से लोगों ने सुना भी नहीं है और सुनकर भी बहुत से लोग इसके विषय में कुछ नहीं जानते हैं। इसके बारे में बोलना वाला विरले ही होते हैं।

द्वितीय अध्याय

    जिस परमेश्वर की प्रेरणा से मानव शब्द आदि विषयों और सुखों का अनुभव करता है, उसी की प्रेरणा से वह यह भी जानता है कि यहां क्या शेष रहता है।

    इस जीवन में भूत-भविष्य के शासक परमात्मा को अपने समीप देखकर मनुष्य उसकी निंदा न करते हुए उसके समान ही हो जाता है।

    परम धाम में स्थित परमात्मा जीव जगत में और अंतरिक्ष में रहने वाला है। वह आहुति यानी मृत्युदाता भी है। अतिथि भी वही और देवताओं में भी परमात्मा का अंश है।

    नीचे जड़ और ऊपर शाखाओं वाला यह सनातन पीपल का वृक्ष है। यह चैतन्य है। यही ब्रह्मा है और यही अमृत है।

    जब मन और पांचों ज्ञानेंद्रियां नियंत्रित हो जाती हैं और बुद्धि स्थिर हो जाती है तो यह अवस्था परमगति कहलाती है। इंद्रियों की यही स्थिरता को ही योग कहते हैं।

Source: Spiritual News in Hindi & Rashifal 2014

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