Wednesday 9 April 2014

God we do not see the illusion of ego

अधिकतर लोग ईश्वर की सत्ता को मानते हैं, फिर क्या वजह है कि लोग यह मानते हुए भी उसे देख नहीं पाते? इसका जवाब यह है कि उन लोगों को ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं देता, क्योंकि माया का आवरण मनुष्य के ऊपर पड़ा होता है। जैसे सूर्य सबको प्रकाश और ऊष्मा देता है, लेकिन यदि वह बादलों से घिर जाए, तो अपना काम नहीं कर पाता। माया का पर्दा भी इसी प्रकाश है।

अब प्रश्न यह है कि यह माया है क्या? माया है हमारा अहंकार। अहंकार के रूप में यह माया बिलकुल सूर्य के सामने आ गए मेघ की तरह ही है। इसी के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। इसे इस तरह समझो कि अगर मैं अपने अंगोछे की ओट कर लूं, तो तुम मुझे नहीं देख सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं तुम्हारे बिलकुल नजदीक हूं।

इसी तरह ईश्वर भी हमारे बहुत निकट है, किंतु अहंकार रुपी आवरण के कारण हम उसे नहीं देख पाते। क्योंकि जब अहंकार रहता है, तब न ज्ञान होता है, न मुक्ति मिलती है। अहंकार के कारण घमंड आता है।

हांडी में रखे दाल, चावल, पानी या आलू को हम तभी छू सकते हैं, जब तक उसे आग पर न रखा जाए। जीव की देह भी हांडी की तरह है। धन, मान-सम्मान, विद्या-बुद्धि,जाति-कुल आदि उन दाल, चावल और आलुओं की तरह हैं। अहंकार वह आग है, जो इनमें शामिल होकर उन्हें तप्त कर देती है।

अहंकार रुपी अग्नि के कारण जीव गर्म होता है। 'मैं' (स्वयं को महत्वपूर्ण समझने) का भाव जब तक पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती।

'मैं' से 'तुम' पर आजाने से ही अहंकार से मुक्ति मिलती है। अहंकार या 'मैं' दो तरह का होता है। एक कच्चा 'मैं' और दूसरा पक्का 'मैं'। 'मैं' जो कुछ देखता, सुनता या महसूस करता हूं, उसमें कुछ भी मेरा नहीं है, यहां तक कि यह शरीर भी मेरा नहीं है। मैं नित्यमुक्त हूं, ज्ञान-स्वरूप हूं।

यह विचार पक्का 'मैं' है, यह भक्ति औरज्ञान का 'मै है, जो सकारात्मक है। वहीं 'यह मेरा मकान है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा शरीर है, यह कच्चा 'मैं' है। यही माया है। जो अहंकार मनुष्य को कामिनी-कंचन में आबद्ध करता है, वह नकारात्मक है।

दरअसल, मैं और मेरा, यह अज्ञान का भाव है। तुम और तुम्हारा-यही ज्ञान है। जो सच्चा भक्त होता है, वह कहता है- जो कुछ भी कर रहे हो, वह तुम्ही कर रहे हो, मेरा तो कुछ भी नहीं है। मैं तो तुम्हारे लिए कर्म कर रहा हूं। मैं सिर्फ एक छोटा-सा शब्द है, इसे दूर करना अत्यंत कठिन है, लेकिन असंभव भी नहीं।

यदि कोशिश करने से 'मैं' नहीं जाता, तो उसे दास बना लो। इस भाव में रहो कि मैं दास हूं। ईश्वर का दास हूं, भक्त हूं। ऐसे 'मैं' में कोई दोष नहीं।

मिठाई खाने से अम्लदोष होता है, पर मिश्री इसका अपवाद है। इसी तरह यह 'मैं' बुरा नहीं। दास का मैं, भक्त का मैं और बालक का मैं जलराशि परखिंची हुई रेखा के समान हैं, जो ज्यादा देर नहीं टिकते। जीव और ब्रह्म में भेद बस इसलिए है कि उनके बीच 'मैं' खड़ा हुआ है।

पानी में लाठी डाल दी जाए,तो पानी दो भागों में बंटा हुआ दिखाई देता है। अहं या मैं ही वह लाठी है। इसे उठा लो, तो पानी एक हो जाएगा। जीव और ब्रह्म आपस में मिल जाएंगे।

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