Thursday 17 April 2014

Lakshmi is free from the narrow idea

उड़िया भाषा में प्रचलित लक्ष्मी पुराण की कथा सामाजिक पद और खाद्य पदार्थों के बीच वितरण के संबंध को स्पष्ट करती है। बताती है किस किसी भी तरह के भेदभाव से लक्ष्मी सदैव मुक्त है।

हम अक्सर यही अनुमान लगाते हैं कि पुराण संस्कृत में रचित हैं। पूरे भारत में यही माना जाता है पर यह सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए बलराम दास द्वारा 15 वीं शताब्दी में रचित लक्ष्मी पुराण उड़िया भाषा में लिखी गई है। इसमें उस घटना का वर्णन है जो पुरी में घटित हुई, जहां भव्य जगन्नाथ मंदिर स्थापित है।

इस मंदिर में, कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र सहित शोभायमान हैं और आने वाले श्रद्धालुओं की इच्छाएं पूरी करते हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि भगवान की पत्नी, लक्ष्मी मुख्य मंदिर में कहीं भी नजर नहीं आती हैं। यह मंदिर अपनी रसोई के लिए विख्यात है जहां पर शोभायित भगवान के लिए बड़ी मात्रा में भोजन तैयार किया जाता है।

यही वह जगह है जहां कि भगवान हर वर्ष रथ और नाव यात्रा पर अपने सहोदर सहित निकलते हैं। यहां भगवान कई परंपराओं का निभाते हैं जिनमें मार्गशीर्ष माह में आने वाली श्राद्ध पंरपरा भी सम्मिलित है जिसमें वे अपने माता-पिता (अदिती-कश्यप, कौशल्या-दशरथ, यशोदा-नंद, देवकी- वसुदेव) को श्रद्धा अर्पण करते हैं। यहां हर 12 वर्ष में सभी देवता मृत्यु का वरण भी करते हैं (और उनके लिए एक अंतिम संस्कार स्थल भी बना हुआ है) और पुन: जन्म लेते हैं।

इससे पहले कि हम इस कथा में गहरे उतरें, यह स्मरण रखना आवश्यक है कि यहां पारंपरिक कथाकारों ने देवताओं को ऐतिहासिक या परालौकिक दृष्टि से नहीं देखा है, वे जाग्रत अवस्था में हैं जो सामान्य जीवन जीते हैं और सामान्य लोगों के साथ रहते हुए उनके साथ श्रेष्ठतम मार्ग यह हम कहें कि असाधारणता के अनुसरण का संवाद करते हैं।

एक दिन, बलभद्र ने लक्ष्मी को एक झाडू लगाने वाली के घर में प्रवेश करते देख लिया। उन्होंने घोषणा की कि अब लक्ष्मी अपवित्र हो गई हैं और अपने अनुज को आदेश दिया कि उन्हें घर में प्रवेश न दिया जाए। कृष्ण ने अपने अग्रज के आदेश का पालन किया और मंदिर के द्वार बंद कर दिए।

आने वाले कुछ दिनों में देवताओं को चिंतित करने वाली बात यह हुई कि उन्हें कोई भोजन नहीं परोसा गया। पता करने पर मालूम हुआ कि रसोई में भोजन बना ही नहीं क्योंकि सभी सब्जियां और फल, दालें और अनाज, सभी मसाले भंडार गृह और बाजार से गायब हो गए हैं। यहां तक कि पीने के लिए एक बूंद जल भी शेष नहीं बचा। देव सहोदरों ने पाया कि इस विपदा का कारण लक्ष्मी को त्यागना ही है।

इसके बाद श्रीकृष्ण ने देवी लक्ष्मी से क्षमा मांगी और उनसे वापस मंदिर आने की याचना की। भाई-बहनों ने सीखा और समझा कि धन की देवी किसी भी तरह के प्रदूषण से अपवित्र नहीं होती हैं। खाद्य पदार्थ बिना किसी भेदभाव के लोगों की क्षुधा को तृप्त करते हैं, चाहे वह मार्ग बुहारने वाला हो या फिर राजा या देवता। दूसरे शब्दों में कहें तो भोजन सत्य है, जो किसी भी तरह के मानवीय दृष्टिकोण से स्वतंत्र है। अपवित्र होने का कोई भी विचार जो कि जाति प्रथा से उपजा है वह मिथ्या है, क्योंकि वह मानवीय दृष्टिकोण पर निर्भर है।

यह पौराणिक कथा कुछ भी हो सकती है लेकिन ब्राह्मण या पैतृक विचार से उपजी नहीं हो सकती। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ यह भी नहीं कि यह मार्क्सवादी सोच की है, अधीनतावादी या नारीवादी विचार है जैसा कि बहुत से शिक्षाविद् संकेत देते हैं।

यह किसी भी तरह का संकेतक, सूचक या उपदेशात्मक आख्यान नहीं है, जैसा कि बाइबल या कुरान या फिर मानव अधिकारों की घोषणा होती है। यह एक विचारात्मक आख्यान है। यह कथा सामाजिक पद और खाद्य पदार्थों के वितरण के बीच के संबंध पर प्रश्न खड़ा करती है, हमारी समझ का विस्तार करती है और सत्य और मिथ्या के बीच अंतर करने की तरफ हमारा ध्यान खींचती है।

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