Tuesday 13 May 2014

Who are the best in between religion and politics

धर्म जीवन को जीने की कला है। जीवन जीने का विज्ञान है। हम जीवन को उसके पूरे अर्थों में कैसे जिएं, धर्म उसकी खोजबीन है। धर्म यदि जीवन-कला की आत्मा है, तो राजनीति जीवन-कला का शरीर है। धर्म अगर प्रकाश है तो राजनीति पृथ्वी है।

भारत में राजनीति और धर्म दोनों जैसे विरोधी रहे हैं। यह एक दूसरे की तरफ पीठ किए हुए हैं। यह आज की ही बात नहीं है, हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है और इसका परिणाम हमने भोगा है। एक हजार वर्ष की गुलामी इसका एक बेहद संजीदा उदाहरण है। हिंदुस्तान गुलाम हुआ, क्योंकि हिंदुस्तान के धार्मिक लोगों के मन में ऐसा नहीं लगा कि उन्हें कुछ करना चाहिए।

हजारों वर्षों तक धार्मिक आदमी कहता रहा कि राजनीति से हमें कुछ लेना-देना नहीं है। धर्म से हमें कुछ-लेना देना नहीं है। लेकिन कोई राज नीति धर्म निरपेक्ष कैसे हो सकती है? राजनीति के धर्म निरपेक्ष होने का क्या अर्थ हो सकता है? एक ही अर्थ हो सकता है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी श्रेष्ठ है, राजनीति को उससे कोई प्रयोजन नहीं।

दरअसल धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ होता है सत्य से निरपेक्ष होना, प्रेम से निरपेक्ष होना, जीवन के गहनतम ज्ञान से निरपेक्ष होना। कोई भी राजनीति अगर धर्म से निरपेक्ष होगी, तो वह मनुष्य के शरीर से ज्यादा गहरा प्रवेश नहीं कर सकती है और जो समाज केवल शरीर के आस-पास जीने में लगा रहता है, उस समाज के जीवन में उसी तरह की दुर्गंध पैदा हो जाएगी।

अगर हम पुराना इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि हिंदुस्तान के धार्मिक लोगों ने भी राजनीति के साथ इतना ही गलत व्यवहार किया है। वे आज तक कह रहे हैं कि राजनीति से धर्म राजनीति से निरपेक्ष है।

धर्म का राजनीति से कोई संबंध न था और न ही है। स्वाभाविक था कि जब धर्म, राजनीति से इतना निरपेक्ष रहा हो तो धर्म से भी हमें कुछ लेना देना न रहा हो। धर्म एक चुनौती है, ऊपर उठाने के लिए धर्म एक पुकार है इसलिए निरंतर ऊपर उठते रहो धर्म एक आह्वान है ताकि मनुष्य ऊंचे शिखरों पर चढ़ता रहे।

राजनीति धर्म से अलग होकर सिर्फ कूटनीति रह जाती है। वह पॉलिटिक्स नहीं होती, सिर्फ डिप्लोमेसी हो जाती है। वहां झूठ और सच में कोई फर्क नहीं रह जाता। हिटलर ने अपने कमरे के ऊपर लिख रखा था कि सत्य के अतिरिक्त और कोई नियम नहीं और उसने अपने कमरे के बाहर लिख रखा था कि हिटलर से ज्यादा झूठ बोलने वाला आदमी पृथ्वी पर कभी नहीं रहा।

राजनीतिज्ञ सदा चाहता है कि धर्म से दूर रहे, क्योंकि धर्म के सामने उसे आत्मग्लानि होनी शुरू हो जाती है। पर वर्तमान हालात ऐसे नहीं हैं।

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