Thursday 26 June 2014

Boasting of king nhus

महाभारत में राजा नहुष का उल्लेख मिलता है। वह कुछ समय के लिए अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग के राजा बने। उस समय राजा नहुष को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

दरअसल ब्रह्महत्या के दोष से पीड़ित होकर देवराज इंद्र कहीं जाकर छिप गए। इसके बाद देवराज के पद पर महराज नहुष सुशोभित हुए।

जब राजा नहुष देवराज बने तो सभी देवताओं ने बड़ा मान दिया। वह मृत्युलोक के राजा थे। उन्होंने यश और पुण्य यहीं से कमाया था। इस कारण से उनकी बुद्धि स्थिर थी और वह पाप कर्मों से बचे रहे। उनके अच्छे दिन ज्यादा समय तक नहीं रहे। देवराज के पद को पाकर वह घमंड से चूर हो गए।

कहते हैं स्वर्ग लोक में सुख भोगना प्रधान होता है। ऐसे में नहुष भोग-विलास में लगे रहे। उनके मन में काम-वासना भी उत्पन्न हो गई।

एक दिन नहुष ने कहा कि देवराज की रानी शची मेरे पास अभी तक नहीं आईं। जब इंद्र में हूं तो उन्हें मेरे पास आना चाहिए। यह सुनकर शची को क्रोध आ गया और वह रोती हुई गुरु बृहस्पति के पास गईं। देवगुरु ने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया।

जब यह बात नहुष को पता चली तो उन्हें क्रोध आ गया। अन्य देवों ने नहुष को समझाने का प्रयत्न किया कि शची पराई स्त्री हैं। तब नहुष बोले की इंद्र ने भी तो गौतम ऋर्षि की पत्नी अहिल्या का सतीत्व नष्ट किया था। यह कहते हुए नहुष हठ कर बैठे की शची उनको ही चाहिए।

सभी देव इंद्राणी शची के पास पहुंचे और उन्हें नहुष की मंशा बताई। मंशा सुनकर शची देवगुरु के पास पहुंचीं। देवगुरु ने शची को बताया तुम घवराओ नहीं, नहुष का अंत निकट है।

काम-वासना से चूर नहुष ने जब शची को आता देखा तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। नहुष शची के आने से बहुत खुश था। यह देखकर शची घवरा गईं पर हिम्मत करते हुए बोलीं कि मेरा वरण करने के पहले आपको देवराज को ढूंढना पड़ेगा। यह कहकर वह देवगुरु के पास आ गईं। वहीं सारे देवता भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे। विष्णुजी ने कहा कि इंद्र को मेरी आराधना करनी चाहिए।

उधर शची ने सती माता से अनुग्रह कर इंद्र के होने का पता लगा लिया। इंद्र परमाणु जितना छोटा रूप बनाकर मानसरोवर के एक कमल की नाल के रेशे से चिपके हुए तपस्या कर रहे थे।वह उन्हें देखकर रोने लगीं। इंद्र ने कहा कि तुम नहुष के पास जाओ और उससे कहना कि अगर वह पालकी में उसके पास आए और वह पालकी सप्तऋर्षि लाएं तो वह उसका वरण कर सकती है।

यह बात नहुष को सुनाई तो नहुष ने सप्तऋर्षियों को यह संदेशा भिजवाया। यह सुनकर सप्तऋर्षि क्रोधित हो गए। जब सप्तऋर्षि नहुष के पास तो नहुष बोले सर्प-सर्प ( प्रचीन काल में सर्प का मतलब जल्दी -जल्दी होता था) यह कहकर उन्हें पालकी उठाने को कहा। सर्प शब्द सुनते ही अगस्त्य ऋर्षि को क्रोध आ गया।

उन्होंने नहुष को शाप दिया कि नहुष तू मृत्युलोक में सर्प बनकर वहीं रहे। इस तरह उसके अहम का पतन हुआ। यह कहानी दरअसल महराज युधिष्ठिर ने द्रोपदी को सुनाई थी। जब दुर्योधन ने घमंड में चूर होकर द्रोपदी का चीर हरण किया था।


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