Friday 20 June 2014

So this is life euphoria

हमारे धर्म ग्रंथों में अक्सर इस बात का उल्लेख मिलता है कि ईश्वर की शरण में जाने से मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है। आखिर ये परम आनंद क्या है? ये कहां मिलता है?

एक आम आदमी को इन दोनों प्रश्नों का उत्तर कभी नहीं मिल पाता और इसीलिए उसकी अध्यात्म के पथ पर उन्नति नहीं हो पाती।

परम आनंद के बारे में भगवान ने गीता में बताया है कि वह स्थिति जिसमें मनुष्य सुख, दुख, हानि, लाभ, क्रोध, मोह और अहंकार आदि से मुक्त होकर स्वयं में स्थापित हो चुका हो।

यानी मन का पूर्णतया निग्रह। मन, इंद्रियों द्वारा मनुष्य को संसार में लिप्त करके उसकी प्रवृत्ति को वाह्य बनाता है और वह संसार में इंद्रियों के द्वारा सुख की खोज में भटकता रहकर जीवन-मरण का चक्कर लगाता रहता है।

इसीलिए परमानंद की प्राप्ति के लिए सबसे पहले मन की प्रवृत्ति को अपने अंदर की ओर मोड़ना चाहिए। अज्ञानवश लोग मन को बलपूर्वक संसार से विरक्त करने की कोशिश करते हैं जो पूर्णतया निर्थक व गलत मार्ग है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में जब भी मन का नियंत्रण ढीला पड़ता है वह दोबारा इंद्रिय भोग द्वारा संसार के भोगों में लिप्त हो जाता है।

आनंद के लिए पहले कदम के रूप में सर्वप्रथम मनुष्य को संसार का लेन-देन समाप्त करना चाहिए। लेन-देन केवल धन तक ही सीमित नहीं है बल्कि भावनात्मक पहलू धन से भी ज्यादा अहम व आवश्यक है।

नकारात्मक भावों के कारण वह कामना रूपी प्रेम, अहंकार, जलन, ईष्र्या और बदले की भावना व क्रोध से पीड़ित रहता है। नकारात्मक भावों के कारण ही उसे शारीरिक रोगों जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदयरोग होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।

भगवान का गीता में बताया गया यह कथन कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से विवेक समाप्त होकर बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार मनुष्य का पतन हो जाता है।

सनातन धर्म में मनुष्य के जीवन चक्र को नियंत्रित करने के लिए आश्रम व्यवस्था है। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य को धीरे-धीरे अपने आपको गृहस्थ आश्रम व दुनियादारी के लेन-देन से मुक्त कर लेना चाहिए और जीवन के शेष भाग को सम स्थिति में रहकर परमानंद में स्थित हो जाना चाहिए।

No comments:

Post a Comment