Thursday 19 June 2014

Getting uncontrollable waves of Bhagirathi

भागीरथी के बढ़े हुए जलस्तर के कारण तटवर्ती इलाकों में दहशत पैदा हो गई है। गंगोरी, लक्षेश्वर, तिलोथ व जोशियाड़ा में बीते साल की बाढ़ से बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था। नदी का शोर सुनकर इन बस्तियों के लोग मंगलवार को पूरी रात जागे रहे। सुबह तिलोथ के ग्रामीणों ने कलक्ट्रेट पहुंचकर जिला प्रशासन से सुरक्षा की गुहार लगाई।

तटवर्ती बस्तियों में दहशत-भागीरथी की लहरें लगातार उफान पर हैं। मनेरी भाली प्रथम चरण परियोजना के गेट खुलने से नदी की लहरों का रुख बेकाबू होने लगा है जिससे मनेरी से उत्तरकाशी तक तटवर्ती बस्तियों के लिए खतरा बढ़ गया है। बाढ़ सुरक्षा कार्य भी बुरी तरह प्रभावित हो गए हैं।

बीते मंगलवार की सांय हुई बारिश के बाद भागीरथी का जलस्तर काफी बढ़ गया। बुधवार को भागीरथी में 320 क्यूमेक्स पानी की मात्र दर्ज की गई। भागीरथी में इतना पानी आने के कारण गंगोरी, लक्षेश्वर, उजेली, गंगा विहार, तिलोथ, जड़भरत व जोशियाड़ा में हो रहे बाढ़ सुरक्षा कार्य बुरी तरह प्रभावित हो गए। सुरक्षा दीवार के लिए खोदी गई बुनियाद में पानी भरने से काम ठप रहा। वहीं जोशियाड़ा में नदी किनारे अस्थायी तौर पर बनाया गया लंबगांव मोटर मार्ग का बड़ा हिस्सा भी जलमग्न हो गया। वहीं विभिन्न जगहों पर बाढ़ सुरक्षा कार्यो में लगी मशीनें भी पानी के बीच फंसी रही। इस स्थिति के कारण बाढ़ सुरक्षा कार्य पूरे दिन नहीं हो सके। नदी की उफनाती लहरों के कारण गंगोरी, गणोशपुर, हिना व मनेरी में गंगोत्री हाईवे पर कटाव का खतरा बढ़ गया है। बीते मंगलवार की सांय नैताला व हिना के बीच बंद हुए हाईवे को बुधवार की सुबह दुरुस्त किया गया। वहीं बुधवार की सांय हुई बारिश से एक बार तांबाखाणी में गंगोत्री हाईवे पर फिर मलबा आ गया।

गंगा के मायके में गहराता जल संकट-

गंगा, यमुना जैसी सदाबहार नदियों वाले उत्तराखंड में प्राकृतिक जलस्त्रोतों के संवर्धन के प्रति सरकारी तंत्र की उदासीनता पेयजल संकट को बेकाबू करती दिख रही है। एक ओर जहां भूजल का स्तर तेजी से नीचे की ओर लुढ़क रहा है, वहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में नाकाफी प्रयास भी इस समस्या को विकराल रूप देते जा रहे हैं।

प्रदेश के तीन मैदानी जिलों में राष्ट्रीय भूजल बोर्ड के एक अध्ययन में यह चिंताजनक तस्वीर सामने आ चुकी है। तीन जिलों के 18 में से सात ब्लॉकों में भूजल की उपलब्धता व दोहन के बीच सिमटता फासला खतरे के निशान के करीब जा पहुंचा है। हिमालयी ग्लेशियर से निकलने वाली गंगा व यमुना जैसी कई सदाबहार नदियां होने के बावजूद उत्तराखंड के कई इलाके प्यासे हैं। वजह यह है कि बढ़ती आबादी के साथ पेयजल की मांग बेतहाशा ढंग से बढ़ रही है, मगर प्राकृतिक जलस्त्रोत सूखते जा रहे हैं। जलस्त्रोतों के संवर्धन व रिचार्ज की तमाम सरकारी कोशिशें धरातल पर सुखद नतीजों में तब्दील नहीं हो पा रहीं। राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1100 मिली मीटर बारिश होती है, मगर बारिश के इस पानी का राज्य में समुचित उपयोग करने की ठोस प्रणाली अब तक विकसित नहीं हो पाई। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड भी मानता है कि यदि उत्तराखंड में बारिश के पानी का 20 फीसद हिस्सा इस्तेमाल कर लिया जाए तो राज्य में पेयजल संकट जैसी कोई स्थिति ही पैदा न हो, मगर रेन वाटर हार्वेटिंग की दिशा में राज्य में अब तक के प्रयास नगण्य ही हैं। इसके नतीजे अब राष्ट्रीय भूजल बोर्ड द्वारा तीन जिलों किए गए अध्ययन की रिपोर्ट में साफ परिलक्षित भी हो रहे हैं। देहरादून, ऊधमसिंहनगर व हरिद्वार जिलों के 18 ब्लॉकों में हुए इस अध्ययन में सात ब्लॉक में भूजल की उपलब्धता व दोहन के बीच का फासला दो हजार हेक्टेयर मीटर से भी कम रह गया है।

राष्ट्रीय भूजल बोर्ड का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए नियोजित विकास व केंद्रीय भूजल प्राधिकरण द्वारा तैयार वाटर रेगुलेशन को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। नए-पुराने उद्योगों के साथ ही होटल, आवासीय कालोनियों व वाटर पार्क जैसी अवस्थापनाओं में पेयजल का दोहन तय मानकों के अनुसार सुनिश्चित कराना होगा। दूसरी ओर, प्राकृतिक जल स्त्रोतों के संवर्धन के लिए उनके कैचमेंट एरिया के ट्रीटमेंट और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में भी कारगर कदम उठाने होंगे।राज्य ब्यूरो, देहरादून: गंगा, यमुना जैसी सदाबहार नदियों वाले उत्तराखंड में प्राकृतिक जलस्त्रोतों के संवर्धन के प्रति सरकारी तंत्र की उदासीनता पेयजल संकट को बेकाबू करती दिख रही है। एक ओर जहां भूजल का स्तर तेजी से नीचे की ओर लुढ़क रहा है, वहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में नाकाफी प्रयास भी इस समस्या को विकराल रूप देते जा रहे हैं। प्रदेश के तीन मैदानी जिलों में राष्ट्रीय भूजल बोर्ड के एक अध्ययन में यह चिंताजनक तस्वीर सामने आ चुकी है। तीन जिलों के 18 में से सात ब्लॉकों में भूजल की उपलब्धता व दोहन के बीच सिमटता फासला खतरे के निशान के करीब जा पहुंचा है। 1हिमालयी ग्लेशियर से निकलने वाली गंगा व यमुना जैसी कई सदाबहार नदियां होने के बावजूद उत्तराखंड के कई इलाके प्यासे हैं। वजह यह है कि बढ़ती आबादी के साथ पेयजल की मांग बेतहाशा ढंग से बढ़ रही है, मगर प्राकृतिक जलस्त्रोत सूखते जा रहे हैं। जलस्त्रोतों के संवर्धन व रिचार्ज की तमाम सरकारी कोशिशें धरातल पर सुखद नतीजों में तब्दील नहीं हो पा रहीं। राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1100 मिली मीटर बारिश होती है, मगर बारिश के इस पानी का राज्य में समुचित उपयोग करने की ठोस प्रणाली अब तक विकसित नहीं हो पाई। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड भी मानता है कि यदि उत्तराखंड में बारिश के पानी का 20 फीसद हिस्सा इस्तेमाल कर लिया जाए तो राज्य में पेयजल संकट जैसी कोई स्थिति ही पैदा न हो, मगर रेन वाटर हार्वेटिंग की दिशा में राज्य में अब तक के प्रयास नगण्य ही हैं। इसके नतीजे अब राष्ट्रीय भूजल बोर्ड द्वारा तीन जिलों किए गए अध्ययन की रिपोर्ट में साफ परिलक्षित भी हो रहे हैं। 

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