Monday 23 June 2014

Please erase my memory

यौगिक परंपरा में हमारा मन या चित्त एक बड़े डाटाबेस की तरह है। जानते-बूझते हुए या अनजाने में किया गया कोई भी अनुभव हमारे चित्त में सहेज लिया जाता है, यह वहां छप और अटक जाता है।

एक योरपीय अदालत में भूल जाने के अधिकार (राइट टू बी फॉरगॉटन) को लेकर एक आधुनिक किस्म की लड़ाई बहुत जोरों पर है। जबकि हमारे अस्तित्व से जुड़े समस्त डेटा पर डिजिटल टेक्नोलॉजी का दबदबा है, जैसे फेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम, जीमेल, हर गली-मुहल्ले में लगे सरकारी और निजी सीसीटीवी कैमरे, यहां तक कि सैटेलाइट कैमरे हमारे घर तक घुस आए हैं तो ऐसी स्थिति में नागरिक भूलने के अधिकार की मांग कर रहे हैं।

यह बातचीत शिव की तरफ हमारा ध्यान खींचती है जिन्हें स्मर-हर्ता कहा गया है। वे हमारी स्मरण शक्ति को नष्ट कर सकते हैं। स्मृति को पोंछ सकने की उनकी योग्यता ही उन्हें योग का देव, योगेश्वर बनाती है।

योगिक परंपरा में हमारा मस्तिष्क या चित्त एक बड़े डेटाबेस की तरह है। जानबूझकर या अनजाने में हम जो भी अनुभव करते हैं, वे हमारे चित्त में सहेज लिए जाते हैं, वहां छप जाते हैं और संग्रहित हो जाते हैं। इसीलिए, हमने जो भी चीजें अनुभूत की हैं उन सभी की याददाश्त हमारे मन में रहती है और न केवल इस जीवन की बल्कि पूर्वजन्म की भी। यह हमारे दिमाग को गूंथती रहती है और वास्तविकता की हमारी समझ को बिगाड़ती है। हमें दुनिया को एक खास तरह से देखने की नजर देती है। जब तक इस तरह से हमारा चित्त गूंथा जाता रहेगा तब तक हम अप्रसन्ना ही रहेंगे।

तो हम प्रसन्न कैसे हो सकते हैं?

आसान तरीका तो यह है कि जिस तरह शिव अपनी चिलम से औषधियों के धुएं का पान करते हैं वैसा ही हम भी करें लेकिन शिव के सदृश ऐसी रसायन द्वारा उत्पन्ना प्रसन्नता ज्यादा समय टिक नहीं सकती। इस तरह की प्रसन्नाता की अवस्था को पार्टियों में देखा जा सकता है या खरीदारी में।

एक और तरीका यह है कि हम अपने मस्तिष्क को उन बारंबार होने वाली और अर्थहीन गतिविधियों से हटा लें जो हमें सोचने से रोकती हैं हमारा समय बोध विस्मृत कर देती हैं जैसे कि वीडियो गेम्स या परंपराएं।

यह उस डमरू या डुगडुगी की तरह है जिसे शिव अपने हाथों में धारण करते हैं, जो बंदरों को बस में करने के काम भी आती है, जबकि डुगडुगी किसी बच्चे को कुछ देर के लिए भरमा लेती है। बॉलीवुड और टेलीविजन के कार्यक्रम इसी तरह की प्रसन्नाता के स्रोत हैं।

चित्त में कोई चक्कर अक्सर हमें यह महसूस करवाता है कि हम शोषित हैं और इसलिए अक्सर हम इस जगत से वैसे ही जुड़ते हैं जैसे पीड़ित। अधिकांशत: हम दुखी आत्मा के तौर पर संसार से जुड़ते है।

किसी दूसरे समय पर उस नायक की तरह जो दुनिया को एक बेहतर जगह में बदलने के लिए प्रयासरत है। एक उलझा हुआ चित्त ही हमें उसकी प्रशंसा से रोकता है कि दुनिया में बहुत कुख्यात खलनायक भी खुद को एक शोषित/दुखी आत्मा या नायक की तरह समझता है। एक कानूनी संस्था या मनोवैज्ञानिक की भूमिका निभाने वाला ही संसार की ऐसी समझ को न्यायोचित और तर्कसंगत ढंग (नासमझी) से देख सकता है।

यह हमारी स्मृतियों तक आता है जो कि हमारे होने में पैठी हैं और जो दुनिया के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बनाती है। क्या हम इसे पोंछ सकते हैं? योग कहता है कि बिलकुल, जबकि वह अष्ट स्तरीय रास्ता सुझाता है। योग को 'चित्त वृद्धि निरोध" के रूप में भी पारिभाषित किया गया है।

जो अष्ट स्तरीय मार्ग द्वारा हमारे मस्तिष्क की गुत्थियों को सुलझाता है। इसमें शामिल है, दूसरों के साथ हमारे संबंधों की समीक्षा (यम), हमारे व्यवहार की समीक्षा (नियम), हमारे हाव-भाव की समीक्षा (आसन), हमारी श्वास की समीक्षा (प्राणायाम), किसी बाह्य व्यवधान के बिना अपना आत्ममूल्यांकन (प्रत्याहार), जागरूकता (धारणा), अवधान (ध्यान) और अंतत: उन सभी स्मृतियों को पोंछ देना जो हमारे मन में किसी भी तरह का विभाजन, अंतर और स्तर रचती हैं, जो हमें बंधा हुआ, एकाकी और परित्यक्त (समाधिस्थ) बनाती हैं। इस तरह धुल-पुछ जाना हमें चैतन्य बनाता है।

चैतन्य यानी ऐसा व्यक्ति जिसका मन पुरानी सारी स्मृतियों से शुद्ध हो गया है। हम दुनिया को नई नजर से देखते हैं, ऐसे साफ-सुथरे मन से जो किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त है। क्या योरपीय कोर्ट ऐसी स्थिति को प्राप्त करेगा?

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