Monday 23 June 2014

Walk on the spiritual path in life

सामान्यत: हमारी गतिविधियां मन से ही संचालित होती हैं और इसलिए जीवन में आध्यात्मिक राह के लिए अपने मन को साधने का अभ्यास बहुत ही जरूरी है।

हमारा जीवन कैसा हो यह हमारे आध्यात्मिक हृदय (मन या दिमाग) पर निर्भर करता है। जैसा हमारा मन होगा वैसा ही हमारा व्यक्तित्व होगा। अगर हमारा मन दुविधाग्रस्त है तो हमारे व्यक्तित्व में भी यह दुविधा दिखेगी। अगर मन में गुस्सा है तो हम स्वभाव से गुस्सैल दिखेंगे। अगर मन दुख से भरा है तो हम दुखी नजर आएंगे।

अगर मन में खुशी है तो हम प्रसन्न रहते हैं। हमारा मन या जिसे हम आध्यात्मिक हृदय कहते हैं वही हमारे व्यवहार को तय करता है। इसलिए सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक अभ्यास है कि अपने मन को सहज और शांत बनाया जाए। उसे बेकार की चीजों से खाली किया जाए।

लेकिन जब मन व्यथित होता है तो हम क्या करते हैं? तो हम कुछ गोलियां लेते हैं। या जैसा कि सभी धर्मों में सिखाया जाता है कि मन की शांति के लिए एक माला लीजिए और भगवान का नाम उच्चारण कीजिए, तो सभी यही करने लगते हैं। लेकिन जब कभी आपके पास समय की कमी है तो आप जल्दी-जल्दी माला करते हैं। एक हड़बड़ी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। माला भी करना है और कहीं जाना भी है।

ऐसी स्थिति में लोग बहुत चिढ़े हुए रहते हैं। ऐसे लोग व्यथित भी हो सकते हैं। ऐसे लोगों को कभी शांति नहीं मिलती क्योंकि मन की शांति ऐसी माला से आ ही नहीं आ सकती। मन की शांति कैसे पाएं यह हमें सीखने की जरूरत है।

हमें जीवन में हर चीज सीखने की जरूरत होती है। यहां तक कि अच्छी चपाती किस तरह बनाई जाए वह भी हमें सीखना होता है। लेकिन जब विचारने की बात आती है, मन को शांत करने की बात आती है तो हम कुछ सीखने का प्रयास नहीं करते।

हमारे दिमाग में विचारों के भरे होने से ही हमें विचारक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि अगर किसी जगह बहुत सारे पेड़ हैं तो उसे कोई गार्डन नहीं कहेगा, वह जंगल ही होगा। जंगल में कोई भी पेड़ कहीं भी उग जाता है। जबकि गार्डन में हर पेड़ को हम बहुत तरीके और सुव्यवस्था के साथ पाते हैं।

यहां हम उसकी छंटाई, कटाई और सिंचाई की एक व्यवस्था देखते हैं। इसी तरह जब हम अपने मन में गोता लगाएंगे तो हम बहुत हताश हो जाते हैं क्योंकि वहां जंगल है। कई बार जब दफ्तरों में वर्माजी गुप्ताजी के पास पहुंचते हैं और पूछते हैं, क्या हो रहा है?

गुप्ताजी प्रतिक्रिया में कहते हैं- आइए, वर्माजी कैसे आना हुआ? वर्माजी- मैं अकेले बोर हो रहा था तो सोचा चलो आपसे बात कर ली जाए। इस तरह के संवाद हमारे जीवन में बहुत आम हैं। अगर हम किसी और के द्वारा बोर होते हैं तो यह बात समझी जा सकती है लेकिन जब हम अपने आप से ही बोर होने लगें तो यह कितनी विकट स्थिति है। जब कोई व्यक्ति अपनी ही उपस्थिति से परेशान होने लगे तो इससे बुरा क्या होगा।

हम अपने आप से इसलिए बोर होते हैं क्योंकि हमारा दिमाग पूरी तरह भरा है और हमने उसे बेकार की चीजों से खाली नहीं किया है। ऐसी स्थिति में हमें किसी के साथ की जरूरत होती है और तभी हम टेक्नोलॉजी का सहारा लेते है। तभी हम फेसबुक पर समय बिताते रहते हैं।

अपनी प्रसन्नता के लिए हम दुनिया की सारी चीजों पर ध्यान देते हैं लेकिन अपने मन पर ध्यान नहीं देते। जब हम अपने मन को नियंत्रण में रखेंगे तो बहुत अच्छे से काम कर पाएंगे। 24 घंटे भी काम करेंगे तो भी खुश रहेंगे लेकिन मन को बेकार की चीजों से मुक्त करो। अपने मन को साधने की कई तकनीक सुझाई गई हैं। इसकी दो प्रमुख तकनीकें मैं आपके साथ बांटता हूं। पहली खुद से बात करना बंद करो।

कोई माला-वाला मत करो। और दूसरी यह कि किसी भी अन्य से बात करने से पहले खुद से पूछो कि क्या बात करना बहुत जरूरी है। अगर आपको जवाब मिलता है नहीं, तो चुप रहो। अगर आप इस तरह अपने मन को नियंत्रित करते हैं तो उसका संबंध आपकी शांति से जुड़ेगा।

जब भी हम बात करते हैं तो भविष्य के बारे में ही बात करते हैं और परेशान हो जाते हैं। युवा हो सकता है कि इस बात से सहमत नहीं हों कि चुप रहना चाहिए लेकिन जरा एक नजर बुजुर्गों को देखिए कि वे तमाम तरह के आकर्षणों से छूट गए हैं।

इस उम्र में उनकी ज्यादा इच्छाएं नहीं रहीं लेकिन फिर भी वे कहते हैं मन शांत नहीं रहता। मन में कुछ व्याकुलता है। इसलिए मन को शांत करने के लिए प्रयास करना चाहिए। वही हमारा लक्ष्य हो तो जीवन सहज बन सकता है।

(स्वामीजी के व्याख्यान का संपादित अंश)

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