Wednesday 25 June 2014

Get aspiration uneventful except fruit

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस संसार में दो प्रकार के लोग हैं जगत में- सकामी और निष्कामी। पहले वे, जो फल की आकांक्षा से उत्प्रेरित होकर कर्म में लीन होते हैं।

दूसरे वे जो सारी इच्छाओं को छोड़ वर्तमान के कर्म में लीन रहते हैं। सकामी को जब तक फल की आकांक्षा का तेल न मिले, तब तक उनके कर्म की ज्योति जलती नहीं। उनके कर्म की अग्नि को जरूरी है कि फल की आकांक्षा का ईंधन मिले।

ध्यान रखें, फल की आकांक्षा बड़ी गीली चीज है। क्योंकि सूखी चीज भविष्य में कभी नहीं होती, सूखी चीज सदा अतीत में होती है। भविष्य बहुत गीला है। गीली लकड़ी की तरह। मुड़ सकता है।

अतीत सूखा होता है। सूखी लकड़ी की तरह। मुड़ नहीं सकता। भविष्य की आकांक्षाओं को जो ईंधन बनाते हैं, अपने जीवन की कर्म-अग्नि में धुएं से भर जाते हैं। हाथ में फल नहीं लगता है, सिर्फ धुआं लगता है। आंखों में आंसू भर जाते हैं (दुख)। कुछ परिणाम नहीं हाथ लगता।

ये इस तरह के लोग हैं जो कर्म में इंच भर भी न चलेंगे, जब तक फल उनको न खींचे। फल ऐसे खींचता है, जैसे कोई पशु की गर्दन में रस्सी बांधकर खींचता है। 'पशु' संस्कृत का अदभुत शब्द है। उसका अर्थ है, जिसके गले में पाश बांधकर खींचा जाए। जिसे खींचने के लिए पाश बांधना पड़े, वह पशु।

इसलिए पुराने ज्ञानी ऐसे लोगों को पशु ही कहेंगे। जो भविष्य की आकांक्षा से बंधे हुए चलते हैं, वे पशु हैं। भविष्य के हाथ में वह रस्सी है। भविष्य खींचे, तो हम चलते हैं या अतीत धक्का दे, तो हम चलते हैं।

मनुष्य वह है, जो अतीत के धक्के को भी नहीं मानता और जो भविष्य की आकांक्षा को नहीं मानता। जो वर्तमान के कर्म में जीता है। जो अतीत के धक्के को भी स्वीकार नहीं करता और जो भविष्य के आकर्षण को भी स्वीकार नहीं करता। जो कहता है, मैं तो अभी, यह जो क्षण मिला है, इसमें जीऊंगा।

लेकिन यह जीना तभी संभव है, जब कोई अतीत और भविष्य को परमात्मा पर समर्पित कर दे। अन्यथा अतीत धक्के मारेगा, अन्यथा भविष्य खींचेगा।

मनुष्य भविष्य को और अतीत को बिना परमात्मा के सहारे बहुत मुश्किल से छोड़ पाएगा। परमात्मा को समर्पित करके आसान हो जाती है राह। वह उस पर छोड़ देता है। जो तेरी मर्जी होगी, कल वह हो जाएगा। अभी जो समय मुझे मिला है, वह मैं काम में लगा देता हूं।

और मेरा आनंद इतना ही है कि मैंने काम किया। फल से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। आनंद उसका कर्म बन जाता है। लेकिन यह तभी बन पाता है, जब कोई प्रभु पर समर्पित करने की साम‌र्थ्य रखता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं- फल की आकांक्षा को छोड़कर, जो निष्काम होकर सारा जीवन प्रभु को समर्पित कर देता है, वही आनंद को प्राप्त होता है।

प्रार्थना भी हम मुफ्त में नहीं करते। हम कुछ पाना चाहते हैं। हाथ भी जोड़ते हैं परमात्मा को, तो शर्त होती है कि कुछ मिल जाए। जिसे कुछ नहीं चाहिए, वह मंदिर जाता नहीं। लेकिन ध्यान रहे, जब कोई कुछ मांगने मंदिर जाता है, तो मंदिर पहुंच ही नहीं पाता। मंदिर के द्वार पर ही जो निष्काम हो जाए, वही भीतर प्रवेश कर सकता है। आप कहेंगे, हम तो मंदिर में रोज प्रवेश करते हैं। आप मकान में प्रवेश करते हैं, मंदिर में नहीं।

मंदिर और मकान में बड़ा फर्क है। जिस मकान में भी आप निष्काम प्रवेश कर जाएं, वह मंदिर हो जाता है और मंदिर में भी सकाम प्रवेश कर जाएं, तो वह मकान हो जाता है। यह आप पर निर्भर करता है कि जहां आप प्रवेश कर रहे हैं, वह मंदिर है या मकान। जिस भूमि पर आप निष्काम होकर खड़े हो जाएं, वह तीर्थ हो जाती है और जिस भूमि पर आप सकाम होकर खड़े हो जाएं, वह पाप हो जाती है। भूमि पर निर्भर नहीं है यह। यह आप पर निर्भर है।

एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं भी भजन-कीर्तन करना चाहता हूं, लेकिन मिलेगा क्या? मैंने उनसे कहा कि जब तक मिलने का विचार है, तब तक कीर्तन न कर पाओगे। क्योंकि मिलने के विचार से तो कीर्तन का कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। कीर्तन का तो अर्थ ही यह है कि कुछ घड़ी हम कुछ भी नहीं पाना चाहते। कुछ क्षण के लिए हम ऐसे जीना चाहते हैं, जिसमें हमारा कुछ पाने का कोई प्रयोजन नहीं है।

जीवन मिला है, इसके आनंद में, इसके उत्सव में नाच रहे हैं। श्वास चल रही है, इसके आनंद-उत्सव में नाच रहे हैं। परमात्मा ने हमें जीवन के योग्य समझा, इसकी खुशी में नाच रहे हैं। कुछ पाने के लिए नहीं। धन्यवाद की तरह। एक आभार की तरह। कीर्तन एक आभार है, थैंक्स गिविंग। कुछ पाने के लिए नहीं, देने के लिए है।

कृष्ण की बात को भी ठीक से समझ लें। वे कहते हैं, दो तरह के लोग हैं। एक कामना से जीने वाले, सकामी। पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा। प्रेम तक करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रार्थना करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे कि फल क्या मिलेगा। फल पहले, फिर कुछ कदम उठाएंगे। इन्हें फल कभी नहीं मिलेगा। मेहनत ये बहुत करेंगे। दौड़ेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं।

मुझे याद है। मेरे गांव के पास वर्ष में कोई दो-तीन बार मेला लगा करता था। उस मेले में लकड़ी के घोड़ों की चकरी लगती थी। जितने भी लोग जाते, उस पर बैठते, पैसे खर्च करते, उस चकरी में गोल-गोल चक्कर खाते। बच्चे यह काम करते तो ठीक था, लेकिन मेरे स्कूल के शिक्षक भी उस पर बैठकर चक्कर खा रहे थे।

यह देखकर मैं बहुत हैरान हुआ। काफी चक्कर वे ले चुके, उनकी जेब के सब पैसे खाली हो गए थे। मैंने उनसे पूछा कि आप चले तो बहुत, लेकिन पहुंचे कहां? उन्होंने कहा, लकड़ी के घोड़े पर बैठकर गोल-गोल घूम रहे हैं। पहुंच कहीं भी नहीं रहे।

यह पूरा का पूरा संसार सकाम चक्कर है, कामनाओं का चक्कर। बस, इच्छा होती है, यह मिल जाएगा। चक्कर लगा लेते हैं, पर मिलता कभी कुछ नहीं। निष्काम व्यक्ति को ही फल मिलता है, लेकिन वह फल चाहता नहीं। वह कर्म को पूरा कर लेता है और परमात्मा पर छोड़ देता है।

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