गुरु की पूजा का पुण्य पर्व पांच हजार वर्षों से आज तक श्रद्धालु शिष्यों द्वारा मनाया जा रहा है। इस परंपरा का कथानक है कि चारों वेदों के समन्वयक भगवान वेदव्यास जी जिन्होंने पैल, जैमिनी, वैशम्पायन और सुमन्तु इन चार शिष्यों को एक-एक करके वेद पढ़ाया और पांचवें शिष्य को एक ही वेद पढ़ाया।
गुरुजी के पांचवे शिष्य थे लोमहर्ष जिनको महाभारत का अध्ययन कराया। कालान्तर में जब ये पांच शिष्य अपनी-अपनी विद्याओं में पारंगत हो गए, तब उन्होंने आषाढ़ महीने की पूर्णिमा के दिन अपने गुरु वेदव्यास जी का विशिष्ट पूजन कर अपनी कृतज्ञता प्रकट की। तभी से गुरु-पूजा के पर्व का प्रचलन आरंभ हो गया।
आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित कर गुरु शिष्य की इस परंपरा को और अधिक जीवन्त कर दिया। इसी के साथ सूफी कवियों ने अपने काव्यों में गुरु को विशेष रूप से महिमा मंडित किया है।
धर्मग्रंथों की मान्यता है कि सदगुरु अपने बह्मज्ञान एवं तपोबल से अपने शिष्य को असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान के अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, साथ ही मृत्यु से अमरत्व तक प्राप्त करा सकता है। गुरु की इतनी महानता है कि इसकी अनुभूति संत कबीर दास ने कुछ इस तरह की है।
गुरुजी के पांचवे शिष्य थे लोमहर्ष जिनको महाभारत का अध्ययन कराया। कालान्तर में जब ये पांच शिष्य अपनी-अपनी विद्याओं में पारंगत हो गए, तब उन्होंने आषाढ़ महीने की पूर्णिमा के दिन अपने गुरु वेदव्यास जी का विशिष्ट पूजन कर अपनी कृतज्ञता प्रकट की। तभी से गुरु-पूजा के पर्व का प्रचलन आरंभ हो गया।
आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित कर गुरु शिष्य की इस परंपरा को और अधिक जीवन्त कर दिया। इसी के साथ सूफी कवियों ने अपने काव्यों में गुरु को विशेष रूप से महिमा मंडित किया है।
धर्मग्रंथों की मान्यता है कि सदगुरु अपने बह्मज्ञान एवं तपोबल से अपने शिष्य को असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान के अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, साथ ही मृत्यु से अमरत्व तक प्राप्त करा सकता है। गुरु की इतनी महानता है कि इसकी अनुभूति संत कबीर दास ने कुछ इस तरह की है।
Source: Spiritual News in Hindi & Rashifal 2014
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