Wednesday, 9 July 2014

Pandharpur has not appeared in the dream

इंदौर शहर के मध्य उस व्यस्ततम चौराहे और पुलिस थाने को पंढरीनाथ के नाम से जाना जाता है, जिसका ट्रैफिक अनजाने में ही सही, सफेद मंदिर की परिक्रमा से संचालित हो जाता है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि यह नाम क्यों-कैसे पड़ा और कौन हैं ये पढरीनाथ।

भगवान विष्णु, जिन्हें भक्त पंढरीनाथ, पांडुरंग, विट्ठल, विठोबा, विठू, विठू माउली और न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मंदिर में विराजित भगवान पंढरीनाथ की काले पत्थर की स्वयंभू मूर्ति बेहद आकर्षक, चिकनी एवं कलात्मक है। इसकी ठोड़ी में लगे हीरे की चमक सड़क से भी नजर आती है।

देशभर में ऐसी दूसरी मूर्ति नहीं है। पंढरपुर की मूर्ति बालू रेत से बनी है और खुरदरी है। सदियों से भक्तों द्वारा माथा टेकने के कारण मूर्ति को क्षति पहुंची। इसके चलते भगवान को चांदी के पैर लगाए गए हैं।

इंदौर के मंदिर का निर्माण महाराजा मल्हारराव होलकर द्वितीय के शासनकाल 1811-1833 के मध्य हुआ। काले पत्थर के खंभों पर आधारित मंदिर को बाद में दीवारों से बंद कर सफेदी रंगवा दी गई।

कहते हैं कि जीरापुर-मांचल के जगीरदार विसाजी लांभाते बहुत धार्मिक थे। उनकी भगवान पंढरीनाथ में गहरी आस्था थी। प्रतिवर्ष आषाढ़ी एकादशी पर पंढरपुर की वारी (तीर्थ यात्रा) में शामिल होने का उनका नियम रहा। वे आषाढ़ी नवमी को पंढरपुर रवाना हो जाते थे। उनकी इस वारी की विशेषता यह थी कि सालभर की कमाई और पत्नी के लिए बनवाए गहने वे पंढरपुर पहुंचकर जरूरतमंदों में बांट देते ते।

इससे उनकी पत्नी बहुत दुःखी थी। यह बात महाराजा मल्हारराव होलकर द्वितीय तक पहुंची। उन्होंने विसाजी कारावास में डलवा दिया गया। इधर वारी का नियम चूक जाने से विसाजी अन्ना-जल त्याग कर पंढरीनाथ को पुकारते और क्षमा मांगते रहे। आषाढ़ी एकादशी को ब्रह्म मुहूर्त में भगवान पंढरीनाथ ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और कहा- 'तुम नहीं आ सके तो क्या हुआ, मैं आ गया हूं।

कारावास के पास बहने वाली नदी में मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। मुझे यहां से निकालो। खुदाई में भगवान पंढरीनाथ की यह मूर्ति निकली। आज भी जागीरदार लांभाते परिवार को मंदिर में पहली पूजा-अभिषेक का मान हासिल है।

भगवान पंढरीनाथ की पालकी पहले जागीरदार लांभाते की हवेली में जाती है। आज भी उनके परिवार की पांचवीं पीढ़ी के चैतन्य लांभाते द्वारा यह परंपरा जारी है।

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