Friday 11 July 2014

Philosophy in the dark

अंधेरा और उजाला, रात और दिन यूं तो जीवन का हिस्सा है। बात चाहे दैनंदिनी जीवन की हो या फिर प्रतीकात्मकता की। हर इंसान का जीवन दिन-रात की तरह ही होता है। अंधेरे और उजाले में बंटा हुआ। जैसे दिन और रात है, वैसे ही जीवन में सुख-दुख की तरह ही अंधेरा और उजाला आता-जाता है।

अध्यात्म और धर्म में भी अंधेरा और उजाला प्रतीकों के तौर पर मौजूद हैं। हर तरह की सकारात्मकता का प्रतीक है उजाला... रोशनी... किरणें...। हर तरह की नकारात्मकता को अंधेरे के प्रतीक से परिभाषित किया गया है। ज्ञान उजाला है, अज्ञान अंधेरा।

प्रेम, सद्भाव, ममता, वात्सल्य, नैतिक, सद् इन सबको रोशनी से परिभाषित किया गया है, और ईर्ष्या, द्वेष, अनैतिकता, असद् इस तरह की सारी भावनाओं को अंधेरे से चित्रित किया जाता रहा है। लेकिन ये बस प्रतीकात्मकता तक ही सीमित है। तभी तो हमारे यहां कहा जाता है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय" या फिर ये पश्चिम में कहा जाता है 'हे ईश्वर अंधकार में हमारी रोशनी बने रहना।

अंधेरा जीवन का उतना ही बड़ा सच है, जितना बड़ा सच उजाला है, रोशनी है। क्योंकि जिस तरह दिन और रात मिलकर एक चक्र पूरा करते हैं, उसी तरह रोशनी और अंधेरा मिलकर जीवन का चक्र पूरा करते हैं। अंधेरा सृष्टि में विद्यमान है, सूर्य से पहले अंधकार ही था, सूर्य आता और जाता है, उजाला भी आता-जाता रहता है। अंधकार बना रहता है।

अंतरिक्ष के अंधकार से लेकर गर्भ के अंधकार तक इसका अस्तित्व सृजन की पूर्वपीठिका है। अंधकार सृष्टि का पहला और अंतिम सत्य है। जीवन को सतत रहस्य, सृजन और अध्यात्म से सिंचित करता है ये अंधकार।

बिना अंधकार के हम सृजन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। सोचें कि धरती के भीतर बीज के अंकुरित होने से लेकर कोख में जीव के विकसित होने तक का साक्षी सिर्फ और सिर्फ अंधकार ही तो है। ये अंधकार ही है जो हमें खुद के साथ रहने, भीतर झांकने और महसूस करने का अवसर देता है।

आखिर ध्यान की अवस्था भी हमें आंखें बंद करने के बाद ही प्राप्त होती है। बिना अंधेरा के हम अपने करीब नहीं आ पाते हैं, हम खुद को जान नहीं पाते हैं। खुद में झांक नहीं पाते हैं, स्व हो नहीं पाते हैं। दुनिया से दूर जाने और खुद के करीब आने लिए अंधेरे की जरूरत होती है। ये सही है कि उजाला हमें देखने की सहूलियत देता है, लेकिन साथ ही ये हमें बंटने की सुविधा भी देता है। जब हम देखने की सीमा से बाहर चले जाते हैं तो हम अपने भीतर झांकने का अवसर पाते हैं।

जिस तरह रात और दिन एक दूसरे के पूरक हैं, उसी तरह अंधकारऔर प्रकाश का वजूद एक-दूसरे के साथ है। एक के बिना दूसरा समझा नहीं जा सकता है। दोनों ही जीवन के लिए जरूरी है।

हम ये भूल जाते हैं कि आंखें बंद करके ही हम साधना और आराधना करते हैं, कर सकते हैं। ध्यान के लिए भी अंधकार की ही दरकार होती है। अंधकार का मतलब भौतिक या शाब्दिक तौर पर अंधकार नहीं है। आंखों को बंद करने के बाद जो होता है वह भी तो अंध्ाकार ही है।

चाहे अंधकार को अज्ञान से और रोशनी को ज्ञान के प्रतीकों से व्यक्त किया जाता हो, लेकिन है तो ये दोनों ही जीवन के अभिन्न हिस्से। अंधकार या रात सृजन, रहस्य, विश्राम, पुनर्निर्माण और ईश्वर और स्व से रूबरू होने का अवसर है।

आखिर क्यों ईसा मसीह और भगवान कृष्ण का जन्म रात के अंधेरे में होता है? आखिर क्यों ईश्वर अब्राहम को रात में दिखाई देते हैं और मूसा को भी ईश्वर रात में ही दिखाई देते हैं।

इसी सिलसिले में अमेरिका की एक धर्मशास्त्री बारबरा ब्राउन टेलर अपनी हालिया किताब 'लर्निंग टू वॉक इन द डार्क में बताती हैं कि अंधेरा का हमारे जीवन में क्या महत्व है और ये भी कि जिस तरह से जीवन में रोशनी की जरूरत और महत्व है, उसी तरह से अंधेरे की भी जरूरत और महत्व है।

बारबरा कहती हैं कि जिस तरह से हमें तृप्ति के अहसास तक पहुंचने के लिए भूख को समझना जरूरी है, उसी तरह हमें रोशनी के अर्थ और महत्व को समझने से पहले अंधकार को समझना जरूरी है।

बिना अंधकार के उजाले का अर्थ नहीं समझा जा सकता है। यदि हम अंधकार को नकारात्मकता का प्रतीक भी मानें तब भी जीवन के सद् को समझने के लिए अंधकारको जानना ही होगा। बिना अंधकार को जानें हम स्व को नहीं जान सकते हैं, न ईश्वर को, न जीवन को और न ही सद्, सत् और सत्य को।

No comments:

Post a Comment